यह व्रत प्रातः काल से चतुर्दशी तिथि रहते रात्रि पर्यन्त
तक करना चाहिए। रात्रि के चारों प्रहरों में भगवान शंकर की पूजा अर्चना करनी चाहिए।
इस विधि से किए गए व्रत से जागरण पूजा उपवास तीनों पुण्य कर्मों का एक साथ पालन हो
जाता है और भगवान शिव की विशेष अनुकम्पा प्राप्त होती है।
इसी दिन भगवान शंकर और मां पार्वती का विवाह भी हुआ था। भगवान शंकर के भक्त महाशिवरात्रि के दिन शिव मंदिरों में जाकर शिवलिंग पर बिल्व-पत्र, बेल फल, बेर, धतूरा, भांग आदि चढ़ाते हैं, पूजन करते हैं, उपवास करते हैं तथा रात्रि को जागरण करते हैं। इस दिन रुद्राभिषेक और जलाभिषेक का भी विशेष महत्व होता है।
महाशिवरात्रि के अवसर पर कई स्थानों पर रात्रि में भगवान शंकर की बारात भी निकाली जाती है। वास्तव में शिवरात्रि का पर्व स्वयं परमपितापरमात्मा के सृष्टि पर अवतरित होने की स्मृति दिलाता है। यहां रात्रि शब्द अज्ञान अन्धकार से होने वाले नैतिक पतन का परिचायक है। परमात्मा ही ज्ञानसागर है, जो मानव मात्र को सत्यज्ञान द्वारा अन्धकार से प्रकाश की ओर अथवा असत्य से सत्य की ओर ले जाते हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, स्त्री-पुरुष, बालक, युवा और वृद्ध सभी इस व्रत को कर सकते हैं। महाशिवरात्रि भगवान शंकर का सबसे पवित्र दिन है। यह अपनी आत्मा को पुनीत करने का महाव्रत है। कहते हैं इस व्रत को करने मात्र से सभी पापों का नाश हो जाता है। हिंसक प्रवृत्ति बदल जाती है। निरीह जीवों के प्रति दया भाव उपजने लगता है।
चतुर्दशी तिथि के स्वामी भगवान शंकर हैं और यह उनकी प्रिय तिथि है। ज्योतिष शास्त्रों में इसे शुभ फलदायी माना गया है और ज्योतिषी महाशिवरात्रि को भगवान शिव की आराधना कर कष्टों से मुक्ति पाने का सुझाव देते हैं। वैसे तो महाशिवरात्रि हर महीने में आती है, लेकिन फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को ही महाशिवरात्रि कहा गया है। ज्योतिषीय गणना के अनुसार सूर्य देव भी इस समय तक उत्तरायण में आ चुके होते हैं तथा ऋतु परिवर्तन का यह समय अत्यन्त शुभ माना गया है। भगवान शंकर सबका कल्याण करने वाले हैं। अत: महाशिवरात्रि पर सरल उपाय करने मात्र से ही सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। ज्योतिष गणित के अनुसार चतुर्दशी तिथि को चंद्रमा अपनी क्षीणस्थ अवस्था में पहुंच जाते हैं। इस कारण बलहीन चंद्रमा सृष्टि को ऊर्जा देने में असमर्थ हो जाते हैं। चंद्रमाका सीधा संबंध मन से कहा गया है। मन कमजोर होने पर भौतिक संताप प्राणी को घेर लेता है तथा विषाद की स्थिति उत्पन्न होती है। इससे कष्टों का सामना करना पड़ता है। चंद्रमा भगवान शिव के मस्तक पर विराजमान हैं और ऐसे में उनकी आराधना करने मात्र से ही सभी कष्ट दूर हो जाते हैं। भगवान शंकर आदि-अनादि हैं और सृष्टि के विनाश व पुन: स्थापना के बीच की कड़ी हैं। भगवान शंकर को सुखों का आधार मान कर महाशिवरात्रि पर अनेक प्रकार के अनुष्ठान करने का महत्व है।
एक बार मां पार्वती जी ने भगवान शंकर से
पूछा कि ऐसा कौन सा श्रेष्ठ तथा सरल व्रत-पूजन है, जिसे करने से मृत्युलोक के प्राणी
आपको सहज ही प्राप्त कर लेते हैं? इस पर शंकर जी ने पार्वती जी को महाशिवरात्रि व्रतका विधान बताकर एक कथा सुनाई, जो कि इस प्रकार है। एक गांव में एक शिकारी रहता था।
पशुओं की हत्या करके वह अपने परिवार को पालता था। वह एक साहूकार का ऋणी था जिसका ऋण
वह समय पर न चुका सका। क्रोधित होकर साहूकार ने शिकारी को शिवमठ में बंदी बना लिया।
संयोग से उस दिन महाशिवरात्रि थी। शिकारी ध्यान लगाकर भगवान शंकर से संबंधी धार्मिक
बातें सुनता रहा। चतुर्दशी को उसने महाशिवरात्रि व्रत की कथा भी सुनी। शाम होते ही
साहूकार ने उसे अपने पास बुलाया और ऋण चुकाने के विषय में बात की।शिकारी अगले दिन
सारा ऋण लौटा देने का वचन देकर बंधन से मुक्त हो गया। पुन: वह फिर जंगल में शिकार के
लिए निकल पड़ा। लेकिन दिनभर बंदी गृह में रहने के कारण भूख-प्यास से वह काफी व्याकुलथा। शिकार करने के लिए वह एक तालाब के किनारे बेल-वृक्ष पर पड़ाव बनाने लगा। बेल वृक्ष
के नीचे शिवलिंग था, जो बिल्व-पत्रों से ढका हुआ था। शिकारी को उसका पता न चला। पड़ाव
बनाते समय उसने जो टहनियां तोड़ीं, वे संयोग से शिवलिंग पर जा गिरीं। इस प्रकार दिनभर
भूखे-प्यासे शिकारी का व्रत भी हो गया और शिवलिंग पर बिल्व-पत्र भी चढ़ गए। एक पहर
रात्रि बीत जाने पर एक गर्भवती मादा हिरण तालाब पर पानी पीने पहुंची। शिकारी ने धनुष
पर तीर चढ़ाकर ज्यों ही प्रत्यंचा खींची, वह बोली कि मैं गर्भवती हूं और शीघ्र ही प्रसव
करुंगी। तुम एक साथ दो जीवों की हत्या करोगे, जो ठीक नहीं है। मैं बच्चे को जन्म देकर
शीघ्र ही तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत हो जाऊंगी और तब तुम मेरे प्राण ले लेना। शिकारीने प्रत्यंचा ढीली कर दी और मादा हिरण जंगल की झाडि़यों में लुप्त हो गई।
कुछ ही देर बाद एक और मादा हिरण उधर से निकली। शिकारी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। समीप आने पर उसने धनुष पर बाण चढ़ाया। यह देखकर उसने शिकारी से निवेदन करते हुए कहा कि मैं अपने प्रिय की खोज में भटक रही हूं और उससे मिलकर शीघ्र ही तुम्हारे पास आ जाऊंगी। शिकारी ने उसे भी जाने दिया। दो बार शिकार को खोकर उसका माथा ठनका और वह चिंता में पड़ गया। रात्रि का आखिरी पहर बीत रहा था। तभी एक अन्य मादा हिरण अपने बच्चों के साथ उधर से निकली। शिकारी के लिए यह स्वर्णिम अवसर था। उसने धनुष पर तीर चढ़ाने में देर नहीं लगाई। वह तीर छोड़ने ही वाला था कि मादा हिरण बोल पड़ी कि मैं इन बच्चों को इनके पिता के पास छोड़कर लौट आऊंगी और इस समय मुझे मत मारो। इस पर शिकारी हंसकर बोला की सामने आए शिकार को छोड़ दूं, मैं ऐसा मूर्ख नहीं। इससे पहले मैं दो बार अपना शिकार खो चुका हूं। मेरे बच्चे भूख-प्यास से तड़प रहे होंगे। उत्तर में मादा हिरण ने फिर कहा कि तुम्हें अपने बच्चों की ममता सता रही है, ठीक वैसे ही मुझे भी उनकी चिंता है। इसलिए सिर्फ बच्चों के नाम पर मैं थोड़ी देर के लिए जीवनदानमांग रही हूं। कृपया मेरा विश्वास करो, मैं इन बच्चों को इनके पिता के पास छोड़कर तुरंत लौटने की प्रतिज्ञा करती हूं।
यह बात सुनकर शिकारी को उस पर भी दया आ गई और उसे जाने दिया। शिकार के अभाव में बेल-वृक्ष पर बैठा शिकारी बिल्व-पत्र तोड़-तोड़कर नीचे फेंकता जा रहा था। सुबह होते ही एक हिरण उसी रास्ते पर आ गया। शिकारी ने सोच लिया कि इसका शिकार वह अवश्य करेगा। शिकारी की तनी प्रत्यंचा देखकर वह हिरण बोला कि यदि तुमने मुझसे पूर्व आने वाली तीन हिरणियों और उनके छोटे-छोटे बच्चों को मार डाला है तो मुझे भी मारने में देरी न करो, ताकि मुझे उनके वियोग में एक क्षण भी दु:ख न सहना पड़े। उसने बताया कि वह उनका पति है। साथ ही वह बोला कि यदि तुमने उन्हें जीवनदान दिया है तो मुझे भी कुछ क्षण का जीवन देने की कृपा करो, मैं भी उनसे मिलकर तुम्हारे समक्ष उपस्थित हो जाऊंगा।
हिरण की बात सुनते ही शिकारी के सामने पूरी रात का घटनाचक्र घूम गया, उसने सारी कथा हिरण को सुना दी। तब हिरण ने कहा कि ह्यमेरी तीनों पत्नियां जिस प्रकार प्रतिज्ञाबद्ध होकर गई हैं, वे मेरी मृत्यु होने पर अपने धर्म का पालन नहीं कर पाएंगी। अत: जैसे तुमने उन्हें विश्वासपात्र मानकर छोड़ा है, वैसे ही मुझे भी जाने दो, मैं उन सबके साथ तुम्हारे सामने शीघ्र ही उपस्थित होता हूं। उपवास, रात्रि के जागरण और शिवलिंग पर बिल्व-पत्र चढ़ने से शिकारी का हिंसक हृदय निर्मल हो चुका था। उसके हाथ से धनुष तथा बाण सहज ही छूट गये। भगवान शंकर की अनुकंपा से उसका हिंसक हृदय करुणामय भावों से भर गया। वह अपने अतीत के कर्मों को याद करके पश्चाताप की अग्नि में जलने लगा। थोड़ी ही देर बाद वह हिरण सपरिवार शिकारी के सामने उपस्थित हो गया, ताकि वह उनका शिकार कर सके, किंतु जंगली पशुओं की ऐसी सत्यता, सात्विकता एवं सामूहिक प्रेमभावना देखकर शिकारी को बड़ी ग्लानि हुई। उसके नेत्रों से आंसू गिरने लगे। उस मृग परिवार को न मारकर शिकारी ने अपने कठोर हृदय को जीव हिंसा से हटा सदा के लिए कोमल एवं दयालु बना लिया। देवलोक से समस्त देव समाज भी इस घटना को देख रहे थे। घटना की परिणति होते ही देवी-देवताओं ने पुष्प-वर्षा की। तब शिकारी तथा हिरण के परिवार मोक्ष को प्राप्त हुए। मान्यता है कि इस व्रत को करने वाला मोक्ष प्राप्त करता है।
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